"मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज जाता रहा, रोज आता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैें तुम्हें गुनगुनाता रहा...
रोज जाता रहा, रोज आता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैें तुम्हें गुनगुनाता रहा...
जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक रहीं
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन-कथाएँ नयन तक रहीं
प्राण के पृष्ठ पर प्रीति की अल्पना
तुम मिटाती रही, मैं बनाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक रहीं
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन-कथाएँ नयन तक रहीं
प्राण के पृष्ठ पर प्रीति की अल्पना
तुम मिटाती रही, मैं बनाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी
गहरा-ठहरा हुआ जल बनी जिन्दगी
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी
दृष्टि आकाश में आस का इक दिया
तुम बुझाती रही, मैं जलाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
गहरा-ठहरा हुआ जल बनी जिन्दगी
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी
दृष्टि आकाश में आस का इक दिया
तुम बुझाती रही, मैं जलाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक
रोज जाता रहा, रोज आता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैें तुम्हें गुनगुनाता रहा...
रोज जाता रहा, रोज आता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैें तुम्हें गुनगुनाता रहा...
जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक रहीं
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन-कथाएँ नयन तक रहीं
प्राण के पृष्ठ पर प्रीति की अल्पना
तुम मिटाती रही, मैं बनाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक रहीं
अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्
मन की गोपन-कथाएँ नयन तक रहीं
प्राण के पृष्ठ पर प्रीति की अल्पना
तुम मिटाती रही, मैं बनाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी
गहरा-ठहरा हुआ जल बनी जिन्दगी
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी
दृष्टि आकाश में आस का इक दिया
तुम बुझाती रही, मैं जलाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
1. "न द्वारिका में मिले बिराजे,बिरज की गलियों में भी नहीं हो ,
न योगियों के हो ध्यान में तुम,अहम जड़े ज्ञान में नहीं हो ,
तुम्हें ये जग ढूंढ़ता है कान्हा ! मग़र इसे ये ख़बर नहीं है ,
बस इक मेरा है भाग्य मोहन ! अगर कहीं हो तो तुम यहीं हो ...
गहरा-ठहरा हुआ जल बनी जिन्दगी
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ
उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी
दृष्टि आकाश में आस का इक दिया
तुम बुझाती रही, मैं जलाता रहा
तुम गजल बन गई, गीत में ढल गई
मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा...
1. "न द्वारिका में मिले बिराजे,बिरज की गलियों में भी नहीं हो ,
न योगियों के हो ध्यान में तुम,अहम जड़े ज्ञान में नहीं हो ,
तुम्हें ये जग ढूंढ़ता है कान्हा ! मग़र इसे ये ख़बर नहीं है ,
बस इक मेरा है भाग्य मोहन ! अगर कहीं हो तो तुम यहीं हो ...
2."जीवन में जब तुम थे नहीं, पल भर नहीं उल्लास था
होठों पे मरुथल और दिल में एक मीठी झील थी,
आँखों में आँसू से सजी, इक दर्द की कन्दील थी।
लेकिन मिलोगे तुम मुझे
मुझको अटल विश्वास था
खुद से बहुत मैं दूर था, बेशक ज़माना पास था।
तुम मिले जैसे कुँवारी कामना को वर मिला।
चाँद की आवारगी को पूनमी-अम्बर मिला।
तन की तपन में जल गया
जो दर्द का इतिहास था।
खुद से बहुत मैं दूर था, बेशक ज़माना पास था।.
3.है नमन उनको कि जो यशकाय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गये है,है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय,
जो धरा पर गिर पडे पर आसमानी हो गये है.....
पिता,जिस के रक्त ने उज्जवल किया कुल-वंश-माथा,
माँ, वही जो दूध से इस देश की रज तोल आई ,
बहन,जिसने सावनों मे, भर लिया पतझर स्वयं ही,
हाथ ना उलझें, कलाई से जो राखी ख़ोल लाई
बेटियाँ,जो लोरियों मे भी प्रभाती सुन रही थीं,
"पिता तुम पर गर्व है" चुपचाप जा कर बोल आईं
प्रिया,जिस की चूड़ियों मे सितारे से टूटते थे,
मांग का सिंदूर दे कर जो उजाले मोल लाई
है नमन उस देहरी को जहाँ तुम खेले कन्हैया,
घर तुम्हारे, परम तप की राजधानी हो गये है....
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय ....
हमने लौटाए सिकन्दर सर झुकाए मात खाऐ,
हमसे भिडते है वे जिनका मन,धरा से भर गया है
नर्क में तुम पूछना अपने बुजुर्गों से कभी भी,
उन के माथों पर हमारी ठोकरों का ही बयाँ है
सिंह के दांतों से गिनती सीखने वालों के आगे,
शीश देने की कला में क्या गजब है? क्या नया है?
जूझना यमराज से आदत पुरानी है हमारी,
उत्तरों की खोज में फिर एक नचिकेता गया है
है नमन उनको कि जिनकी अग्नि से हारा प्रभंजन,
काल-कौतुक जिनके आगे पानी-पानी हो गये है
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय........
लिख चुकी है विधि तुम्हारी वीरता के पुण्य-लेखे,
विजय के उदघोष! गीता के कथन! तुमको नमन है
राखियों की प्रतीक्षा! सिन्दूरदानों की व्यथाऒं!
देशहित प्रतिबद्ध-यौवन कै सपन! तुमको नमन है
बहन के विश्वास! भाई के सखा! कुल के सहारे!
पिता के व्रत के फलित! माँ के नयन! तुमको नमन है
कंचनी-तन, चंदनी -मन, आह,आंसू,प्यार,सपने,
राष्ट्र के हित कर गए सब कुछ हवन ,तुमको नमन है
है नमन उनको कि जिनको काल पाकर हुआ पावन,
शिखर जिनके चरण छूकर और मानी हो गये है.
है नमन उनको कि जिनके सामने बौना हिमालय,
जो धरा पर गिर पडे पर आसमानी हो गये...
4."चेहरे पर चंचल लट उलझी, आँखों में सपने सुहाने हैं
ये वही पुरानी राहें हैं, ये दिन भी वही पुराने हैं,कुछ तुम भूली, कुछ मै भूला, मंजिल फिर से आसान हुई
हम मिले अचानक जैसे फिर, पहली-पहली पहचान हुई
आँखों ने पुनः पढ़ीं आँखें, ना शिकवे हैं ना ताने हैं
चेहरे पर चंचल लट उलझी, आँखों में सपने सुहाने है
तुमने शाने पर सर रखकर, जब देखा फिर से एक बार
जुड़ गया पुरानी वीणा का, जो टूट गया था एक तार
फिर वाही साज धड़कन वाला, फिर वाही मिलन के गाने हैं
चेहरे पर चंचल लट उलझी, आँखों में सपने सुहाने है
आओ, हम दोनों की साँसों का, एक वही आधार रहे
सपने, उम्मीदें, प्यास मिटे, बस प्यार रहे, बस प्यार रहे
बस प्यार अमर है दुनिया में, सब रिश्ते आने-जाने हैं
चेहरे पर चंचल लट उलझी, आँखों में सपने सुहाने हैं..
5."कुछ छोटे सपनो के बदले,
बडी नींद का सौदा करने,निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे !
वही प्यास के अनगढ़ मोती,
वही धूप की सुर्ख कहानी,
वही आंख में घुटकर मरती,
आंसू की खुद्दार जवानी,
हर मोहरे की मूक विवशता, चौसर के खाने क्या जाने
हार जीत तय करती है वे, आज कौन से घर ठहरेंगे
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे !
कुछ पलकों में बंद चांदनी,
कुछ होठों में कैद तराने,
मंजिल के गुमनाम भरोसे,
सपनो के लाचार बहाने,
जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे,
उन के भी दुर्दम्य इरादे, वीणा के स्वर पर ठहरेंगे
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे
6."महफ़िल,मुकाम,रास्ते और गम उदास हैं ,
खुद में जो जब्त हैं सभी मौसम उदास हैं ,किस-किस से पूछियेगा बेहल सवाल ये ,
सब ही उदास हैं या फ़क़त हम उदास हैं ..?
7."धीरे-धीरे चल री पवन मन आज है अकेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रेधीरे चलो री आज नाव ना किनारा है
नयनो के बरखा में याद का सहारा है
धीरे-धीरे निकल मगन-मन, छोड़ सब झमेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे
होनी को रोके कौन, वक्त से बंधे हैं सब
राह में बिछुड़ जाए, कौन जाने कैसे कब
पीछे मींचे आँख, संजोये दुनिया का रेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे
तेज जो चले हैं माना दुनिया से आगे हैं
किसको पता है किन्तु, कितने अभागे हैं
वो क्या जाने महका कैसे, आधी रात बेला रे
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे.
8."तुम आयीं चुप खोल साँकलें
मन के मुँदे किवार से राई से दिन बीत रहे हैं
जो थे कभी पहार से
तुमने धरा, धरा पर ज्यों ही पाँव
समर्पण जाग गया
बिंदिया के सूरज से मन पर घिरा
कुहासा भाग गया
इन अधरों की कलियों से जो फूटा
जग में फैल गया
इसी राग के अनुगामी होकर
मेरा अनुराग गया
तुम आई चुप फूल बटोरे
मन के हरसिंगार के
राई से दिन बीत रहे हैं
जो थे कभी पहार से
9."यदि स्नेह जाग जाए, अधिकार माँग लेना
मन को उचित लगे तो, तुम प्यार माँग लेनादो पल मिले हैं तुमको, यूँ ही न बीत जाएँ
कुछ यूँ करो कि धड़कन, आँसू के गीत गाएँ
जो मन को हार देगा, उसकी ही जीत होगी
अक्षर बनेंगे गीता, हर लय में प्रीत होगी
बहुमूल्य है व्यथा का, उपहार माँग लेना
यदि स्नेह जाग जाए, अधिकार माँग लेना
जीवन का वस्त्र बुनना, सुख-दुःख के तार लेकर
कुछ शूल और हँसते, कुछ हरसिंगार लेकर
दुःख की नदी बड़ी है, हिम्मत न हार जाना
आशा की नाव पर चढ़, हँसकर ही पार जाना
तुम भी किसी से स्वप्निल, सँसार माँग लेना
यदि स्नेह जाग जाए, अधिकार माँग लेना
10."मैं तो झोंका हूँ हवाओं का उड़ा ले जाऊँगा
जागती रहना तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा हो के कदमों पर निछावर फूल ने बुत से कहा
ख़ाक़ में मिल कर भी मैं खुशबू बचा ले जाऊँगा
कौन सी शै मुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक
ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा
कोशिशें मुझको मिटाने की भले हों क़ामयाब
मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मज़ा ले जाऊँगा
शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त दुश्मन हो गये
सब यहीं रह जाएँगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा..
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